Rakhi mishra

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कमाई (प्रेरक लघुकथाएं)

पिछले दो सालों से गुरु महाराज के मठ में आना जाना शुरू हुआ है मेरा। वहाँ बड़े मधुर भजन होते¸ परोपकार के कार्य किये जाते¸ भावुकों के प्रश्नों का समाधान मिलता। भजन में बाकी कोई हो न हो¸ एक सोलह सत्रह वर्ष का फुर्तीला लड़का बंसी हमेशा दिखाई देता था। वह भजन में सुंदर ढपली बजाता था। भावुक¸ सेवाभावी और सारी ऊँच नीच से दूर ईमानदारी से काम करने में विश्वास रखता था। गुरुदेव के चरणों में सेवा करने को मिलती है इसी में वह अपना जीवन धन्य माना करता। नियमित आने जाने से उससे भी पहचान हो गई थी और उसे हम चिढ़ाया भी करते थे कि उसका नाम बंसी है और बजाता है ढपली। वह बस शरमाकर रह जाता।


एक दिन बातचीत में मैंने उससे पूछ ही लिया। वह दिन भर यहीं रहकर सेवा किया करता था। बदले में उसे थोड़े बहुत पैसे¸ खाना¸ कपड़ा आदी मिलता था। घर की परिस्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी।


"तुम इतने दिनों तक यहाँ सेवा करते रहे बंसी!" मैंने पूछा¸ "आखिर तुमने क्या कमाया?"


बंसी कुछ उत्तर दे इससे पहले ही उसे किसी ने काम के लिये बुला लिया। बात आई गई हो गई।


उस दिन गुरु पूर्णिमा का उत्सव था मठ में। हज़ारों लाखों भक्तजन उपस्थित थे। प्रसाद¸ हार फूल¸ दक्षिणा तो जैसे उफन रही थी। तभी मैंने देखा¸ किसी अनाम भक्त ने गुरु महाराज के चरण कमलों पर एक लाखों की कीमत का जड़ाऊ हीरे का हार रख दिया था। गुरूजी के आस पास अभिजात वर्ग के दिखावटी भक्तों की भीड़ थी जो अपने सामर्थ्य का परिचय देते हुए गुरूजी से सामीप्य का प्रदर्शन करने में मग्न थे।


हार को हाथ में लिये हुए गुरूजी असमंजस में थे। तभी लालची दृष्टि के वशीभूत ढेरों हाथ आगे बढ़े¸ "दीजीये गुरूजी मैं रख देता हूँ।" "यहाँ दीजीये गुरूजी मैं अपने पास सुरक्षित रखूँगा।" आदी के स्वर गूँजने लगे।


उसी समय गुरूजी ने सामान्य तरीके से आवाज लगाई "अरे बंसी! ओ बंसी। कहाँ रह गया?"


काम काज में उलझा बंसी पसीना पोंछता गुरूजी के समक्ष हाजिर हुआ।


"ये रख तो जरा सम्हालकर।" और वह हार बंसी की कृतज्ञ हथेली पर आ गिरा। कितनी ही वक्र दृष्टियाँ बंसी पर पड़ी। गुरु का उसपर विश्वास देख कितने ही हृदय भावुक भी हुए।


परंतु बंसी की दृष्टि मुझे खोज रही थी। और उसने आँखों की खुशी से ही मुझे जता दिया कि इतने दिनों में उसने यहाँ रहकर क्या कमाया है।

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